The Story of Shantanu and Bhisma
शांतनु जिसका पिछले जन्म में नाम महाभिषक था। महाभिषक ने अपने आप को सिद्धस्त मनुष्य साबित करके ख्याति प्राप्त की और इंद्रलोक में उनको आमंत्रित किया गया और वो वहाँ चले गए
थे। जब वह इंद्र दरबार में अपने स्थान पर बैठे थे, तभी देवी
गंगा वहां आईं और देवी गंगा पल भर के लिए बेखबर हुईं तो उनका पल्लू गिर गया और अनजाने में उनके शरीर
का ऊपरी भाग नग्न हो गया। इन्द्रलोक की आचार संहिता के अनुसार सभी व्यक्तियों
ने अपनी आंखें नीची कर लीं, लेकिन महाभिषक देवी गंगा को घुरते रहे।
इस असभ्य आचरण को देखकर इंद्र क्रोधित हो गए और महाभिषक से कहा, ‘तुम इंद्रलोक में रहने के योग्य नहीं हो। तुम्हें धरती पर वापिस जाना होगा और फिर से मनुष्यरूप में जन्म लेना होगा।’ महाभिषक द्वारा ऐसा देखने से गंगा को भी प्रशन्ता हुई यह जानकार इन्द्र के क्रोध में ओर वृद्धि हो गई और अब महाभिषक के साथ-साथ गंगा को भी यह आदेश दे दिया गया की वो भी मनुष्य रूप में पृथ्वी पर निवास करे। जब तुम लोग अपनी सज्ज़ा से मुक्त हो जाओगे तो तुम फिर से इंद्रलोक आ सकते हो।
शांतनु के रूप में महाभिषक का पुनर्जन्म हुआ और वह गंगा से मिले। शांतनु को यह नहीं याद था की पिछले जन्म में वो कौन था ,लेकिन गंगा को पिछले जन्म के सारे वृतांत याद थे। गंगा द्वारा राजा शांतनु को याद दिलाने की भरपूर कोशिश की गई, लेकिन राजा आपने शिकार में इतने व्यस्त रहते थे कि वो देवी गंगा की तरफ देख ही नहीं पाते थे लेकिन एक दिन ऐसा आया कि जब राजा शिकार के लिए जंगल आया हुआ था वो शिकार करते हुए इतनी आगे आ गया कि उसके सेवक पीछे रह गए। राजा को प्यास लगी तो आस- पास कोई नहीं होने के कारण वो नदी की तरफ चले गए, जहाँ पर उसकी नजर देवी गंगा पर पड़ी और देवी गंगा,जोकि स्त्री रूप में प्रकट हुई थी उस समय, की सुंदरता में वशिभूत हो गया और फिर से प्रेम में पड़ गए।
और राजा शांतनु ने देवी गंगा से विवाह करने की प्रार्थना की । देवी गंगा इस शर्त पर विवाह करने के लिए मान गई – “चाहे मैं कुछ भी करूं, आप मुझसे कदापि ये नहीं पूछेंगे कि मैं वैसा क्यों कर रही हूँ। अगर आप इस बात का वचन देते है तभी आपसे विवाह कर सकती हूँ ” । कामुक्तावश एवं प्रेम से परिभूत राजा ने देवी गंगा को यह वचन दे दिया। दोनों का विवाह हो गया और कुछ समय पश्चात रानी गंगा ने गर्भ धारण किया। राजा बहुत ही हर्षित अवस्था में रहता था और फिर रानी गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। लेकिन राजा यह देख कर दुखी एवं क्रोधित हुआ कि एक माता कैसे अपने पुत्र को नदी में बहा सकती है , लेकिन थी तो यह एक कड़वी सच्चाई ,पर वचन किया था गंगा से इसलिए कुछ कह न सका।
शांतनु को विश्वास नहीं हो रहा था कि उनकी पत्नी ने उनके पहले पुत्र को नदी में डुबो दिया। उनका हृदय फट रहा था, लेकिन उन्हें याद आया कि अगर उन्होंने वजह पूछी, तो गंगा चली जाएगी। वह बहुत दुखी हो गया और अपनी पत्नी से डरने लगा। मगर देवी गंगा से राजा शांतनु बहुत प्रेम करते थे, दोनों साथ-साथ रहते रहे।
गंगा ने फिर से गर्भ धारण किया और एक ओर पुत्र को जन्म दिया और फिर से बगैर कुछ बोले अपने पुत्र को नदी में बहा कर आ गई । राजा शांतनु तो जैसे पागल ही हो गए हो । उनसे यह बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि कैसे कोई माता है मगर हाय रे मज़बूरी वह देवी गंगा को कुछ बोल नहीं सकते ,पूछ नहीं सकते क्योकि वचन से बाधित जो थे अगर पूछा तो रानी छोड़ कर चली जाएगी इसलिए मुँह से एक शब्द भी न निकला।
दूसरे बच्चे, तीसरे बच्चे से लेकर सातवें बच्चे तक यही प्रक्रिया रही और राजा यह सब देखता रहा और झेलता रहा। शांतनु बुरी तरह आतंकित हो गए थे। वह अपनी पत्नी से खौफ खाने लगे क्योंकि वह उनके नवजात शिशुओं को नदी में डुबो दे रही थी। जब आठवें बच्चे का जन्म हुआ तो शांतनु असहाय की तरह गंगा के पीछे-पीछे नदी तक गए। जब वह बच्चे को डुबोने ही वाली थी, कि शांतनु ने जाकर बच्चे को छीन लिया और बोले, ‘अब बहुत हो गया। एक माता ऐसा कैसे कर सकती हैं ’ गंगा बोली, ‘आपने मुझे वचन दिया था की आप मुझसे कुछ नहीं पूछेंगे परन्तु आपने शर्त तोड़ दी है। अब मुझे जाना होगा। मगर जाने से पहले मैं आपको कारण जरूर बताऊंगी।’
‘ऋषि वशिष्ठ के बारे में तो आपने सुना ही होगा वह अपने आश्रम में रहते थे और उनके पास दैवीय गुणोसेयुक्त नंदिनी नाम की एक गाय थी। एक दिन, अपने विमानों के साथ आठों वाशु एवं उनकी पत्निया विमानों में बैठकर पृथ्वी भ्रमण पर आए हुए थे । वे वशिष्ठ के आश्रम से गुजरे और उन्होंने देवैगुणो से युक्त नंदिनी गाय को देखा। वसु प्रभास की पत्नी ने कहा, ‘मुझे वह सूंदर गाय चाहिए।’ प्रभास ने बिना सोचे-विचारे कहा, ‘चलो, गाय लेकर आते हैं।’
दूसरे वसुओं ने कहा, ‘मगर गाय हमारी नहीं है। यह एक ऋषि की गाय है। हमें इसे नहीं लेना चाहिए।’ प्रभास की पत्नी ने जवाब दिया, ‘डरपोक हो तुम गाय नहीं ला सकते, इसलिए धर्म को बीच में ला रहे हो।’ प्रभास को यह बात चुभ गई और साथियों की मदद से गाय को चुराने की कोश्शि की। जैसे ही वशिष्ठ को पता चला कि उनकी प्रिय गाय को चुराया जा रहा है, उन्होंने वसुओं को पकड़ लिया और बोले, ‘ऐसा काम करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई। तुम लोग अतिथि बन कर आए। हमने तुम्हारी इतनी खातिरदारी की और तुम मेरी ही गाय को चुराना चाहते हो।’
उन्होंने वसुओं को श्राप दे दिया - ‘तुम लोग इंसानों के रूप में जन्म लोगे और उसके साथ आने वाली सभी सीमाओं में बंध कर रहोगे। तुम्हें इस धरती पर जीवन यापन करना होगा।’ जब वसुओं को पता चला कि मैं (गंगा) देवलोक में हूं और मुझे इंसान के रूप में धरती पर जाने का श्राप मिला है, तो आठों वसुओं ने मुझसे प्रार्थना की - ‘कुछ ऐसा कीजिए कि हम आपके गर्भ से पैदा हों। और इस धरती पर हमारा जीवन जितना हो सके, उतना छोटा हो।’
गंगा ने अंत में शांतनु से कहा, ‘मैं उनकी इस इच्छा को पूर्ण कर रही थी कि वे इस धरती पर पैदा हों, मगर उन्हें यहां जीवन बिताना न पड़े। वे जल्दी से जल्दी इस श्राप से मुक्त होना चाहते थे। इसलिए, मैंने सातों को लंबा जीवन जीने से बचा लिया।
आठवें का जीवन आपने बचा लिया, जो प्रभास है, जिसका इस चोरी में मुख्य हाथ था। शायद उसे इस धरती पर लंबा जीवन जीना होगा। वह अभी शिशु है, इसलिए मैं उसे अपने साथ ले जा रही हूं। सोलह वर्ष का होने पर, मैं उसे आपके पास वापस ले आऊंगी। उससे पहले मैं यह सुनिश्चित करूंगी कि एक अच्छा राजा बनने के लिए उसे जो कुछ भी जानना चाहिए, उन सब की शिक्षा उसे मिले।’
गंगा बच्चे को लेकर चली गई। शांतनु उदासीन और खोए हुए रहने लगे। वह राज्य में दिलचस्पी खो बैठे। कभी महान राजा रहा इंसान एक निराश और हताश व्यक्ति बन गया था। वह निराशा में इधर-उधर भटकने लगे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।
16 साल गुजर गए, गंगा ने उन दोनों के पुत्र देवव्रत,जोकि बाद में भीष्मा कह लाये , को लाकर शांतनु को सौंप दिया। देवव्रत ने खुद परशुराम से तीरंदाजी सीखी थी और वृहस्पति से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था। उसने सबसे काबिल गुरुओं से हर चीज की शिक्षा प्राप्त की थी और अब वह राजा बनने के लिए तैयार था। जब शांतनु ने इस भरे-पूरे युवक को देखा जो बड़ी जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार था, तो उनकी निराशा दूर हो गई और उन्होंने बहुत प्यार और उत्साह से अपने बेटे को अपनाया। उन्होंने देवव्रत को युवराज यानी भावी राजा बना दिया। देवव्रत ने बहुत अच्छे से राजपाट संभाल लिया। शांतनु फिर से स्वतंत्र और प्रसन्न हो गए। वह फिर से शिकार पर जाने लगे और फिर प्रेम में पड़ गए
सत्यवती को देखाकर शांतनु की कामेच्छा हिलोरे मारने लगी और राजा शांतनु उससे प्रेम करने लगे। राजा ने सत्यवती के पिता के पास जाकर विवाह के लिए सत्यवती का हाथ मांगा। लेकिन मछुआरों के चतुर मुखिया , जो अपने आप में एक छोटा-मोटा राजा था, ने सम्राट को अपनी दत्तक पुत्री का हाथ मांगते देखा, तो उसे यह एक अच्छा अवसर प्रतीत हुआ । वह बोला, ‘मैं आपसे अपनी पुत्री का विवाह तभी कर सकता हूं, अगर उसकी संतान कुरु वंश का उत्तराधिकारी हो।’ शांतनु ने कहा, ‘यह संभव नहीं है। मैंने पहले ही अपने पुत्र देवव्रत को युवराज घोषित कर दिया है । वह कुरु वंश पर राज करने के लिए सबसे बेहतर शासक है।सत्यवती के पिता ने बोला, ‘फिर मेरी बेटी को भूल जाइए।’ शांतनु ने उससे प्रार्थना की। वह बोला, ‘यह आपके ऊपर है। अगर आप मेरी बेटी को चाहते हैं तो उसकी संतान को राजा बनाना ही होगा। वरना, खुशी-खुशी अपने महल लौट जाइए।’
शांतनु एक बार फिर निराशा में डूब कर महल चले गए। वह सत्यवती को अपने दिमाग से निकाल नहीं पा रहे थे। उसकी सुगंध ने इस तरह से उन्हें सम्मोहित कर दिया था कि वह एक बार फिर राज्य के मामलों में दिलचस्पी खो बैठे। वह चुपचाप बैठे रहते। देवव्रत ने अपने पिता को देखकर पूछा, ‘राज्य में सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा है। फिर आपको कौन सी चीज परेशान कर रही है?’ शांतनु ने बस सिर हिला दिया और शर्म के मारे सिर झुका लिया। वह अपने बेटे को नहीं बता पाए कि बात क्या है। देवव्रत राजा शांतनु के सारथी के पास गया, जो राजा को शिकार पर ले कर गया था। उसने पूछा, ‘शिकार से लौटने के बाद मेरे पिता इतने उदास रहते है इसका कारण बताए । उन्हें क्या हुआ है?’ सारथी ने कहा, ‘मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि क्या हुआ है। मैं उन्हें मछुआरों के मुखिया के पास ले गया था। आपके पिता एक राजा की तरह बड़े जोश और प्यार से उस घर में दाखिल हुए थे। मगर जब वह लौटे, तो वह बहुत उदास लग रहे थे।’
देवव्रत ने निश्चय किया कि वह खुद वहां जाकर पता लगाएंगे । दासा ने कहा, ‘आपके पिता राजा शांतनु मेरी बेटी
को चाहते हैं और उससे विवाह करना चाहते है । मैंने बस इतना कहा है कि मेरी बेटी की संतान को ही भविष्य
में राजा बनना चाहिए। यह एक मामूली सी शर्त है। बस आप इसके आड़े आ रहे
हैं।’ देवव्रत ने कहा, ‘यह कोई समस्या नहीं है। मैं वचन देता हूँ कि मैं
कभी राजा नहीं बनूंगा। सत्यवती के बच्चे ही राजा बनेंगे।’ मछुआरा मुस्कुराते हुए बोला, ‘आप अभी एक युवक हैं, और ऐसी बातें कहने का
साहस दिखा सकते हैं। मगर बाद में जब आपके अपने बच्चे होंगे, तो वे सिंहासन
के लिए लड़ेंगे।’ फिर देवव्रत ने आकाश की ओर देखते हुए भीष्म प्रतिज्ञा लेते हुए कहा, ‘मैं कभी विवाह नहीं करूंगा और बच्चे
पैदा नहीं करूंगा ताकि सत्यवती के बच्चों को ही राजा बनने का अवसर मिले।’ क्या अब आप इससे संतुष्ट हैं?’ आखिरकार, मछुआरे ने हां कह
दी। इसी प्रतिज्ञा की वजह से उन्हें भीष्म कहा जाने लगा। इसके बाद शांतनु ने सत्यवती से विवाह कर लिया
इस असभ्य आचरण को देखकर इंद्र क्रोधित हो गए और महाभिषक से कहा, ‘तुम इंद्रलोक में रहने के योग्य नहीं हो। तुम्हें धरती पर वापिस जाना होगा और फिर से मनुष्यरूप में जन्म लेना होगा।’ महाभिषक द्वारा ऐसा देखने से गंगा को भी प्रशन्ता हुई यह जानकार इन्द्र के क्रोध में ओर वृद्धि हो गई और अब महाभिषक के साथ-साथ गंगा को भी यह आदेश दे दिया गया की वो भी मनुष्य रूप में पृथ्वी पर निवास करे। जब तुम लोग अपनी सज्ज़ा से मुक्त हो जाओगे तो तुम फिर से इंद्रलोक आ सकते हो।
शांतनु के रूप में महाभिषक का पुनर्जन्म हुआ और वह गंगा से मिले। शांतनु को यह नहीं याद था की पिछले जन्म में वो कौन था ,लेकिन गंगा को पिछले जन्म के सारे वृतांत याद थे। गंगा द्वारा राजा शांतनु को याद दिलाने की भरपूर कोशिश की गई, लेकिन राजा आपने शिकार में इतने व्यस्त रहते थे कि वो देवी गंगा की तरफ देख ही नहीं पाते थे लेकिन एक दिन ऐसा आया कि जब राजा शिकार के लिए जंगल आया हुआ था वो शिकार करते हुए इतनी आगे आ गया कि उसके सेवक पीछे रह गए। राजा को प्यास लगी तो आस- पास कोई नहीं होने के कारण वो नदी की तरफ चले गए, जहाँ पर उसकी नजर देवी गंगा पर पड़ी और देवी गंगा,जोकि स्त्री रूप में प्रकट हुई थी उस समय, की सुंदरता में वशिभूत हो गया और फिर से प्रेम में पड़ गए।
और राजा शांतनु ने देवी गंगा से विवाह करने की प्रार्थना की । देवी गंगा इस शर्त पर विवाह करने के लिए मान गई – “चाहे मैं कुछ भी करूं, आप मुझसे कदापि ये नहीं पूछेंगे कि मैं वैसा क्यों कर रही हूँ। अगर आप इस बात का वचन देते है तभी आपसे विवाह कर सकती हूँ ” । कामुक्तावश एवं प्रेम से परिभूत राजा ने देवी गंगा को यह वचन दे दिया। दोनों का विवाह हो गया और कुछ समय पश्चात रानी गंगा ने गर्भ धारण किया। राजा बहुत ही हर्षित अवस्था में रहता था और फिर रानी गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। लेकिन राजा यह देख कर दुखी एवं क्रोधित हुआ कि एक माता कैसे अपने पुत्र को नदी में बहा सकती है , लेकिन थी तो यह एक कड़वी सच्चाई ,पर वचन किया था गंगा से इसलिए कुछ कह न सका।
शांतनु को विश्वास नहीं हो रहा था कि उनकी पत्नी ने उनके पहले पुत्र को नदी में डुबो दिया। उनका हृदय फट रहा था, लेकिन उन्हें याद आया कि अगर उन्होंने वजह पूछी, तो गंगा चली जाएगी। वह बहुत दुखी हो गया और अपनी पत्नी से डरने लगा। मगर देवी गंगा से राजा शांतनु बहुत प्रेम करते थे, दोनों साथ-साथ रहते रहे।
गंगा ने फिर से गर्भ धारण किया और एक ओर पुत्र को जन्म दिया और फिर से बगैर कुछ बोले अपने पुत्र को नदी में बहा कर आ गई । राजा शांतनु तो जैसे पागल ही हो गए हो । उनसे यह बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि कैसे कोई माता है मगर हाय रे मज़बूरी वह देवी गंगा को कुछ बोल नहीं सकते ,पूछ नहीं सकते क्योकि वचन से बाधित जो थे अगर पूछा तो रानी छोड़ कर चली जाएगी इसलिए मुँह से एक शब्द भी न निकला।
दूसरे बच्चे, तीसरे बच्चे से लेकर सातवें बच्चे तक यही प्रक्रिया रही और राजा यह सब देखता रहा और झेलता रहा। शांतनु बुरी तरह आतंकित हो गए थे। वह अपनी पत्नी से खौफ खाने लगे क्योंकि वह उनके नवजात शिशुओं को नदी में डुबो दे रही थी। जब आठवें बच्चे का जन्म हुआ तो शांतनु असहाय की तरह गंगा के पीछे-पीछे नदी तक गए। जब वह बच्चे को डुबोने ही वाली थी, कि शांतनु ने जाकर बच्चे को छीन लिया और बोले, ‘अब बहुत हो गया। एक माता ऐसा कैसे कर सकती हैं ’ गंगा बोली, ‘आपने मुझे वचन दिया था की आप मुझसे कुछ नहीं पूछेंगे परन्तु आपने शर्त तोड़ दी है। अब मुझे जाना होगा। मगर जाने से पहले मैं आपको कारण जरूर बताऊंगी।’
‘ऋषि वशिष्ठ के बारे में तो आपने सुना ही होगा वह अपने आश्रम में रहते थे और उनके पास दैवीय गुणोसेयुक्त नंदिनी नाम की एक गाय थी। एक दिन, अपने विमानों के साथ आठों वाशु एवं उनकी पत्निया विमानों में बैठकर पृथ्वी भ्रमण पर आए हुए थे । वे वशिष्ठ के आश्रम से गुजरे और उन्होंने देवैगुणो से युक्त नंदिनी गाय को देखा। वसु प्रभास की पत्नी ने कहा, ‘मुझे वह सूंदर गाय चाहिए।’ प्रभास ने बिना सोचे-विचारे कहा, ‘चलो, गाय लेकर आते हैं।’
दूसरे वसुओं ने कहा, ‘मगर गाय हमारी नहीं है। यह एक ऋषि की गाय है। हमें इसे नहीं लेना चाहिए।’ प्रभास की पत्नी ने जवाब दिया, ‘डरपोक हो तुम गाय नहीं ला सकते, इसलिए धर्म को बीच में ला रहे हो।’ प्रभास को यह बात चुभ गई और साथियों की मदद से गाय को चुराने की कोश्शि की। जैसे ही वशिष्ठ को पता चला कि उनकी प्रिय गाय को चुराया जा रहा है, उन्होंने वसुओं को पकड़ लिया और बोले, ‘ऐसा काम करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई। तुम लोग अतिथि बन कर आए। हमने तुम्हारी इतनी खातिरदारी की और तुम मेरी ही गाय को चुराना चाहते हो।’
उन्होंने वसुओं को श्राप दे दिया - ‘तुम लोग इंसानों के रूप में जन्म लोगे और उसके साथ आने वाली सभी सीमाओं में बंध कर रहोगे। तुम्हें इस धरती पर जीवन यापन करना होगा।’ जब वसुओं को पता चला कि मैं (गंगा) देवलोक में हूं और मुझे इंसान के रूप में धरती पर जाने का श्राप मिला है, तो आठों वसुओं ने मुझसे प्रार्थना की - ‘कुछ ऐसा कीजिए कि हम आपके गर्भ से पैदा हों। और इस धरती पर हमारा जीवन जितना हो सके, उतना छोटा हो।’
गंगा ने अंत में शांतनु से कहा, ‘मैं उनकी इस इच्छा को पूर्ण कर रही थी कि वे इस धरती पर पैदा हों, मगर उन्हें यहां जीवन बिताना न पड़े। वे जल्दी से जल्दी इस श्राप से मुक्त होना चाहते थे। इसलिए, मैंने सातों को लंबा जीवन जीने से बचा लिया।
आठवें का जीवन आपने बचा लिया, जो प्रभास है, जिसका इस चोरी में मुख्य हाथ था। शायद उसे इस धरती पर लंबा जीवन जीना होगा। वह अभी शिशु है, इसलिए मैं उसे अपने साथ ले जा रही हूं। सोलह वर्ष का होने पर, मैं उसे आपके पास वापस ले आऊंगी। उससे पहले मैं यह सुनिश्चित करूंगी कि एक अच्छा राजा बनने के लिए उसे जो कुछ भी जानना चाहिए, उन सब की शिक्षा उसे मिले।’
गंगा बच्चे को लेकर चली गई। शांतनु उदासीन और खोए हुए रहने लगे। वह राज्य में दिलचस्पी खो बैठे। कभी महान राजा रहा इंसान एक निराश और हताश व्यक्ति बन गया था। वह निराशा में इधर-उधर भटकने लगे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।
16 साल गुजर गए, गंगा ने उन दोनों के पुत्र देवव्रत,जोकि बाद में भीष्मा कह लाये , को लाकर शांतनु को सौंप दिया। देवव्रत ने खुद परशुराम से तीरंदाजी सीखी थी और वृहस्पति से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था। उसने सबसे काबिल गुरुओं से हर चीज की शिक्षा प्राप्त की थी और अब वह राजा बनने के लिए तैयार था। जब शांतनु ने इस भरे-पूरे युवक को देखा जो बड़ी जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार था, तो उनकी निराशा दूर हो गई और उन्होंने बहुत प्यार और उत्साह से अपने बेटे को अपनाया। उन्होंने देवव्रत को युवराज यानी भावी राजा बना दिया। देवव्रत ने बहुत अच्छे से राजपाट संभाल लिया। शांतनु फिर से स्वतंत्र और प्रसन्न हो गए। वह फिर से शिकार पर जाने लगे और फिर प्रेम में पड़ गए
सत्यवती को देखाकर शांतनु की कामेच्छा हिलोरे मारने लगी और राजा शांतनु उससे प्रेम करने लगे। राजा ने सत्यवती के पिता के पास जाकर विवाह के लिए सत्यवती का हाथ मांगा। लेकिन मछुआरों के चतुर मुखिया , जो अपने आप में एक छोटा-मोटा राजा था, ने सम्राट को अपनी दत्तक पुत्री का हाथ मांगते देखा, तो उसे यह एक अच्छा अवसर प्रतीत हुआ । वह बोला, ‘मैं आपसे अपनी पुत्री का विवाह तभी कर सकता हूं, अगर उसकी संतान कुरु वंश का उत्तराधिकारी हो।’ शांतनु ने कहा, ‘यह संभव नहीं है। मैंने पहले ही अपने पुत्र देवव्रत को युवराज घोषित कर दिया है । वह कुरु वंश पर राज करने के लिए सबसे बेहतर शासक है।सत्यवती के पिता ने बोला, ‘फिर मेरी बेटी को भूल जाइए।’ शांतनु ने उससे प्रार्थना की। वह बोला, ‘यह आपके ऊपर है। अगर आप मेरी बेटी को चाहते हैं तो उसकी संतान को राजा बनाना ही होगा। वरना, खुशी-खुशी अपने महल लौट जाइए।’
शांतनु एक बार फिर निराशा में डूब कर महल चले गए। वह सत्यवती को अपने दिमाग से निकाल नहीं पा रहे थे। उसकी सुगंध ने इस तरह से उन्हें सम्मोहित कर दिया था कि वह एक बार फिर राज्य के मामलों में दिलचस्पी खो बैठे। वह चुपचाप बैठे रहते। देवव्रत ने अपने पिता को देखकर पूछा, ‘राज्य में सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा है। फिर आपको कौन सी चीज परेशान कर रही है?’ शांतनु ने बस सिर हिला दिया और शर्म के मारे सिर झुका लिया। वह अपने बेटे को नहीं बता पाए कि बात क्या है। देवव्रत राजा शांतनु के सारथी के पास गया, जो राजा को शिकार पर ले कर गया था। उसने पूछा, ‘शिकार से लौटने के बाद मेरे पिता इतने उदास रहते है इसका कारण बताए । उन्हें क्या हुआ है?’ सारथी ने कहा, ‘मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि क्या हुआ है। मैं उन्हें मछुआरों के मुखिया के पास ले गया था। आपके पिता एक राजा की तरह बड़े जोश और प्यार से उस घर में दाखिल हुए थे। मगर जब वह लौटे, तो वह बहुत उदास लग रहे थे।’
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